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संपादकीय निवेदन

आधुनिक भारत के इतिहास का यह एक अद्भुत आश्चर्य है कि अंग्रेजों के विरुद्ध लंबे और कठिन संघर्ष के पश्चात् जब हमें स्वतंत्रता प्राप्त हुई तो हमने अंग्रेजी शासन की सब वैधानिक प्रशासनिक एवं न्यायिक व्यवस्थाओं को ज्यों-का-त्यों रख लिया। और फिर जब हम स्वतंत्र भारत के लिए संविधान लिखने बैठे तो हमने उन सब व्यवस्थाओं को संवैधानिक आवरण देकर उन्हें प्रायः स्थायी बना लिया। हमारे अति-विस्तृत लिखित संविधान का तीन-चौथाई भाग तो अंग्रेजों के समय के भारतीय प्रशासन अधिनियम 1935 की पुनरावृत्ति ही है। वह अधिनियम ब्रिटिश संसद द्वारा तब तक पारित सबसे लंबा अधिनियम था, कदाचित् इसीलिए भारतीय संविधान भी विश्व का सबसे लंबा लिखित संविधान बन गया।

स्वतंत्र भारत के संविधान में ब्रिटिश काल की व्यवस्थाओं का इस प्रकार का अपरिमित समावेश हमारे स्वतंत्रता संग्राम की मूल प्रेरणाओं के परिप्रेक्ष्य में और भी आश्चर्यजनक दिखता है। गांधीजी के नेतृत्व में भारत के लोगों ने जो स्वतंत्रता संग्राम लड़ा था वह अपने आप में विलक्षण था। वह संग्राम अंग्रेजों के विरुद्ध नहीं, अंग्रेजी व्यवस्थाओं के विरुद्ध था। गांधीजी कहा करते थे कि अंग्रेज रह जाएँ और उनकी व्यवस्थाएँ चली जाएँ तो मैं समझूँगा कि स्वराज्य आ गया और अंग्रेज चले जाएँ पर उनकी व्यवस्थाएँ रह जाएँ तो मैं समझूँगा कि स्वराज्य नहीं आया। वह संग्राम मात्र स्वतंत्रताप्राप्ति के लिए नहीं था। उसका उद्देश्य स्वराज्य की स्थापना था और स्वराज्य का अर्थ था कि भारत की सार्वजिनिक व्यवस्थाएँ भारत की विशिष्ट सभ्यता एवं प्रकृति के अनुरूप होंगी, भारत के लोग भारतीय ढंग से अनुशासित जीवन जीयेंगे।

स्वराज्य के इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए संघर्ष के साधन भी गांधीजी ने भारतीय सभ्यता के अनुरूप ही गढ़े थे। उनको चिंता थी कि हम हिंसा के मार्ग पर चलेंगे तो स्वतंत्रता तो कदाचित् मिल जायेगी पर स्वराज्य नहीं मिल पायेगा, अंग्रेज तो कदाचित् हार जायेंगे पर उनकी व्यवस्थाएँ नहीं हारेंगी। इसीलिए उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम को सत्याग्रह का रूप दिया था। उनका कहना था कि हम अंग्रेजों को परास्त करने के लिये संघर्ष नहीं कर रहे थे, अंग्रेजियत के विरुद्ध अपने-आप को दृढ़ एवं अनुशासित करने के लिए सत्याग्रह कर रहे थे।

साय एवं साधन दोनों के प्रति इतनी स्पष्टता रखते हुए जो स्वतंत्रता संग्राम महात्मा गांधी जैसे सत्याग्रही के नेतृत्व में लड़ा गया उसकी परिणति अंग्रेजी व्यवस्थाओं को सुदृढ़ एवं स्थायी करने वाले संविधान में कैसे हुई, यह निश्चय ही आधुनिक भारतीय इतिहास का एक अनुत्तरित प्रश्न है। यह प्रश्न कोई निरुद्देश्य ऐतिहासिक कुतूहल का विषय नहीं है। अपने जीवन काल में भारतीय राष्ट्र के पुनरुत्थान और भारतीय सभ्यता के अपने परम वैभव में पुनः स्थापित होते हुआ देखने का स्वप्न रखने वालों के लिए इस प्रश्न का उत्तर ढूँढना अनिवार्य है।

इस प्रश्न का उत्तर पाने का प्रयास करने से पूर्व यह जानना प्रासंगिक है कि अंग्रेजी शासन-काल में विभिन्न वैधानिक, प्रशासनिक, न्यायिक, शैक्षणिक एवं अन्य सार्वजनिक व्यवस्थाओं का विकास कैसे हुआ? जो व्यवस्थाएँ अंग्रेज अपने पीछे यहाँ छोड़ कर गये वे कोई एक दिन में खड़ी नहीं हो गयी थीं। अठारहवीं शताब्दी के पूर्वाद्र्ध में भारत के कतिपय भागों में अंग्रेजी शासन की स्थापना के प्रारंभिक वर्षों से ही अंग्रेजों ने उन क्षेत्रों की देशज व्यवस्थाओं के स्थान पर अपनी व्यवस्थाओं का आरोपण प्रारंभ कर दिया था। उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में मराठों की पराजय के उपरांत भारत पर अंग्रेजों का वर्चस्व स्थापित होने के पश्चात् अंग्रेजी व्यवस्थाओं के प्रत्यारोपण की यह प्रक्रिया कुछ तीव्र हुई। फिर 1857 के स्वतंत्रता-संग्राम की असफलता के पश्चात् तो भारत के सार्वजनिक जीवन को नियमित एवं प्रचालित करने के लिये अंग्रेजी व्यवस्थाओं की व्यापकता बढ़ती चली गयी और उन्हें स्थिर वैधानिक स्वरूप दिया जाने लगा। 1935 का गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट (भारत शासन अधिनियम) सार्वजनिक जीवन के प्रायः सब क्षेत्रों में स्थापित हो चुकी इन अंग्रेजी व्यवस्थाओं को औपचारिक संवैधानिक स्वरूप एवं संरक्षण देने का ही प्रयास था। 1950 में इन्हीं व्यवस्थाओं को स्वतंत्र भारत के संविधान में मान्यता प्राप्त हो गयी।

भारत के सार्वजनिक जीवन में अंग्रेजी व्यवस्थाओं का यह क्रमिक विकास इस सुदीर्घ काल के राजनैतिक-सांस्कृतिक प्रवाह के मय ही हुआ। चाहे भारत में अंग्रेजों का वर्चस्व था, फिर भी इन विस्तृत व्यवस्थाओं का निर्माण अंग्रेज केवल अपने से ही नहीं कर सकते थे। भारतीय राजनेताओं और समाज के विभिन्न क्षेत्रों में प्रभाव रखने वाले शिष्टजनों को निरंतर इस प्रक्रिया से जोड़ते हुए और विभिन्न संप्रदायों एवं वर्गों में बन रहे नये-नये समीकरणों में संतुलन बैठाते हुए ही अंग्रेज अपनी व्यवस्थाओं का आरोपण एवं विस्तार कर रहे थे। इस प्रकार भारत की सार्वजनिक व्यवस्थाओं के परिवर्तन की प्रक्रिया भारतीय समाज एवं भारतीय राजनीति में हो रहे परिवर्तन का ही भाग थी, दोनों प्रक्रियाएँ एक दूसरे पर आश्रित थीं।

स्वतंत्र भारत ने अंग्रेजी व्यवस्थाओं को ही क्यों अपना लिया? इस प्रश्न का उत्तर अंग्रेजी शासन के काल में भारत में चली सामाजिक एवं राजनैतिक परिवर्तन की प्रक्रिया में ही निहित है, ऐसा सोचते एवं मानते हुए हम कुछ मित्रों ने 2012 के प्रारंभ में श्री देवेंद्र स्वरूप से साग्रह निवेदन किया कि वे इस कालखण्ड के इतिहास को विस्तार से समझाने के लिए कुछेक सार्वजनिक व्याख्यान दें।

श्री देवेंद्र स्वरूप का राष्ट्रवादी इतिहासकारों में अपना विशेष स्थान है। लंबे काल तक वे इतिहास पढ़ाते रहे हैं। राष्ट्रजीवन से संबंधित अनेक महत्त्वपूर्ण विषयों पर उन्होंने विस्तृत शोध किया है। ऐतिहासिक साक्ष्यों एवं सूचनाओं का श्रमपूर्वक संकलन करते रहना उनकी शोधवृत्ति का भाग रहा है। अतः अनेक विषयों पर दुर्लभ सामग्री का भण्डार उनके पास सुरक्षित है। भारतीय संविधान के मायम से आरोपित अंग्रेजी व्यवस्थाएँ भारतीय समाज की प्रकृति के विपरीत हैं, उनके कारण विभिन्न जातियों एवं विभिन्न वर्गों के मय समरसता छिन्न-भिन्न हो रही है, समाज में सहज नौतिकता का क्षरण हो रहा है और राष्ट्रनिर्माण की प्रक्रिया बाधित हो रही है, यह उनके लिए अनेक दशकों से चिंतन का विषय रहा है। अतः इन व्यवस्थाओं के विकास के क्रम एवं प्रक्रिया पर वे शोध एवं विचार करते रहे हैं।

हमारे आग्रह को स्वीकार कर श्री देवेंद्र स्वरूप ने इस विषय पर साप्ताहिक व्याख्यानों की एक शृंखला प्रस्तुत करने का निर्णय लिया। शनिवार 30 जून 2012 से यह शृंखला प्रारंभ हुई और शनिवार 27 अक्तूबर 2012 तक निरंतर चली, केवल 15 सितंबर के शनिवार को इस में व्यवधान आया। उस दिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पांचवें सरसंघचालक श्रद्धेय श्री सुदर्शनजी के निधन के कारण व्याख्यान सुनने के लिए एकत्रित सभा ने शोक सभा का रूप ले लिया।

ये व्याख्यान दिल्ली महानगर के केंद्रीय भाग में दो सार्वजनिक स्थलों पर हुए। पहले ग्यारह व्याख्यान बाराखंभा मार्ग पर स्थित आर्य अनाथालय की कोठी में और शेष कनाट प्लेस में ही स्थित लाला दीवानचंद न्यास के हाल में हुए। पाँच महीने तक चली इस शृंखला में अनेक विद्यार्थियों और अनेक विद्वत् एवं प्रबुद्ध जनों ने भाग लिया। प्रत्येक व्याख्यान में न्यूनतम 50-60 के आसपास की उपस्थिति रहती थी, अनेक व्याख्यानों में उपस्थिति इससे कहीं अधिक थी। अनुमान है कि कुल 250 लोगों ने इस शृंखला में भाग लिया होगा। विभिन्न व्याख्यानों में आने वाले लोगों में अनेक इस विषय के विद्वान् अयेता थे और अन्य अनेक की गणना अपने-अपने क्षेत्र के अग्रणी विद्वानों में होती है। किसी गहन गंभीर विषय पर हुए व्याख्यानों में लोगों की ऐसी रुचि सुखद आश्चर्य का विषय था।

प्रस्तुत पुस्तक में इस शृंखला के पहले 17 व्याख्यानों का प्रायः शब्दशः संकलन किया गया है। लिखित भाषा के प्रवाह एवं व्याकरण की दृष्टि से अनिवार्य किंचित् मात्र संपादन ही हुआ है, जहाँ तक संभव हो पाया श्री देवेंद्र स्वरूप द्वारा प्रयुक्त भाषा एवं वाक्य रचना को  ज्यों का त्यों रखने का प्रयास किया गया है। इस कारण कहीं-कहीं कुछ पुनरुक्ति का रह जाना स्वाभाविक ही है। अंतिम 18वें व्याख्यान का उपयोग श्री देवेंद्र स्वरूप ने श्रोताओं के साथ विचार-विमर्श के लिए किया, उसको इस संकलन में नहीं जोड़ा गया।

इन व्याख्यानों में अठारहवीं शताब्दी के मय से लेकर बीसवीं के मय तक के कालखण्ड के भारतीय इतिहास का विशद वर्णन आ गया है। यह वर्णन इतना व्यापक, सरल, सुगम एवं बोधगम्य बन पाया है कि इस पुस्तक को इस काल के भारतीय इतिहास की पाठपुस्तक के रूप में पढ़ा जा सकता है। इस शृंखला के अनेक प्रतिभागियों का सहज उद्गार था कि काश हमें विद्यालय अथवा महाविद्यालय स्तर पर इतिहास ऐसे सरल ढंग से पढ़ाया गया होता।

इस कालखण्ड के इतिहास के इस सहज तथ्यात्मक वर्णन से पहली बात तो यह स्पष्ट होती है कि अंग्रेजी इतिहासकारों ने यह जो भ्रम फैला रखा है कि दक्षिण में फ्रांसीसियों द्वारा थोपे गये युद्धों के कारण ही उन्हें भारतीय राजनीति में उलझना पड़ गया, यह कोरा झूठ है। अंग्रेज भारत में अपना साम्राज्य स्थापित करने का सपना लेकर ही यहाँ आये थे और इसके लिये उन्होंने बहुत पहले से भारत की समुद्री सीमाओं की घेराबंदी प्रारंभ कर दी थी। अंग्रेजों का यह कहना कि भारत में वे मुगलों के उत्तराधिकारी थे, मुगलों से उन्हें भारत का साम्राज्य प्राप्त हुआ, यह भी झूठ है। भारत के प्रायः सब भागों में अंग्रेजों के प्रतिद्वंद्वी स्थानीय देशज राजा एवं मराठे ही थे। उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में मराठों के पतन के पश्चात् ही अंग्रेज भारत पर हावी हो पाये और इस प्रकार उन्होंने भारत का साम्राज्य मुगलों से नहीं अपितु मराठों से प्राप्त किया था। मराठों के इतिहास का और उनकी शक्ति एवं दुर्बलताओं दोनों का विशद वर्णन इन व्याख्यानों में आया है।

मराठों के पतन के पश्चात् अंग्रेजों को यह विश्वास हो गया कि अब भारत पर उनका एकछत्र राज्य चलने वाला है। तब से ही ब्रिटिश समाज के उच्च वर्गों में यह निर्णय कर लिया गया कि अब हम भारत को छोड़कर जाने वाले नहीं हैं और कभी भारत को छोड़ने का अवसर आ ही गया तो हम यह देश एक ऐसे वर्ग के हाथों छोड़ कर जायेंगे जो हमारी सभ्यता और हमारे आदर्शों को अपना मानता होगा और हमारे प्रति कृतज्ञता का भाव रखता होगा। तब से ही उन्होंने भारतीय सभ्यता एवं इतिहास और भारतीयों के चरित्र का एक अत्यंत नकारात्मक बौद्धिक चित्र प्रस्तुत करने का क्रम प्रारंभ किया। शिक्षा, न्याय एवं प्रशासन के क्षेत्रों में नयी अंग्रेजी व्यवस्थाएँ स्थापित करने की प्रक्रिया भी तभी प्रारंभ हुई। साथ ही उन्होंने पारंपरिक देशज शिष्ट वर्गों को समाप्त कर उनके स्थान पर नये वर्गों को आरोपित करना प्रारंभ कर दिया। इसी क्रम में एक सुनियोजित प्रयास बड़े स्तर पर भारतीयों का धर्म परिवर्तन कर उन्हें ईसाई बनाने का भी था।

इन प्रयासों की परिणति 1857 के विस्फोट में हुई। उस संग्राम में भारत के देशज शिष्ट वर्गों ने भारतीय व्यवस्थाओं को बचाने का एक अंतिम शौर्यपूर्ण प्रयास किया। इस प्रयास में मराठों के समय से सत्ताच्युत हुए मुस्लिम भी देशज भारतीय शिष्ट वर्ग के साथ आ गये थे, संग्राम मुगल सम्राट् को दिल्ली की गद्दी पर पुनः बैठाने के नाम पर ही लड़ा गया था। इस संग्राम की विफलता ने दीर्घकाल तक भारत पर अपना शासन चलाए रखने और इसलिए भारत के सार्वजनिक जीवन एवं भारतीय व्यवस्थाओं को अपने अनुरूप ढालते चले जाने के अंग्रेजों के संकल्प को और दृढ़ कर दिया। 1857 की पृष्ठभूमि एवं उस संग्राम की विभिन्न प्रेरणाओं एवं मुख्य कर्ताओं का विस्तृत विश्लेषण भी इन व्याख्यानों में हुआ है।

पर 1857 के पश्चात् कुछ दशक के भीतर ही भारत में स्वदेशाभिमान का सशक्त जागरण होने लगा। स्वामी दयानंद सरस्वती की प्रेरणा से चला भारतव्यापी गोवा-विरोधी आंदोलन इस जागरण का प्रथम प्रस्फुटन था। 1893 में स्वामी विवेकानन्द का अमरीका में भारतीय सभ्यता की सर्वोच्चता का उष इस जागरण का औपचारिक घोष माना जा सकता है। इस नवजागरण की एक बड़ी विशेषता यह थी कि अंग्रेजी पढ़ा-लिखा वर्ग इसमें अग्रणी भूमिका में था। इस वर्ग को अंग्रेज अपनी सभ्यता एवं अपने आदर्शों के अनुयायी वर्ग के रूप में खड़ा कर रहे थे। बंगाल इस वर्ग का गढ़ था। शीघ्र ही उसी बंगाल से उसी अंग्रेजी पढ़े-लिखे वर्ग के नेतृत्व में स्वदेशी का सशक्त आंदोलन चला और उस आंदोलन की बयार पूरे देश में बह निकली, पूरा देश जागृत हो उठा। लाल-बाल-पाल पूरे भारत में अंग्रेजी शिक्षित वर्ग के प्रेरणा-रुधोत बन गये। स्वदेशी आंदोलन और उसके प्रणेताओं का विस्तृत वर्णन इन व्याख्यानों में आया है।

1915 में महात्मा गांधी ने भारत आकर उस स्वदेशी आंदोलन को और भी प्रखर रूप दे दिया। तब तक स्वदेशी और उसके साथ जुड़े क्रांतिकारी आंदोलन का दमन अंग्रेज कर चुके थे, आंदोलन के सब प्रमुख नेता या तो जेलों में थे या भारत से बाहर जा चुके थे। महात्मा गांधी के आते ही भारत की राजनीति अत्यंत सक्रिय हो उठी। सत्याग्रह का आवरण ओढ़ और स्वदेशी एवं स्वराज्य का सपना लेकर भारतीय समाज सब प्रकार के कष्ट सहने के लिए तत्पर हो उठा। अगले प्रायः दो दशकों तक भारतीय राजनीति में पहल गांधीजी के ही हाथ में रही।

सब पहल गांधीजी के हाथों में होते हुए भी इस काल में अंग्रेज निरंतर भारत को अपने प्रकार की संवैधानिक व्यवस्थाओं में बांधने का प्रयास करते चले गए। भारत में कानून, डाक्टरी आदि जैसे नये व्यवसायों से जुड़ा हुआ अंग्रेजी पढ़ा-लिखा जो बड़ा वर्ग अंग्रेजों ने तब तक खड़ा कर लिया था, वह गांधीजी के नेतृत्व में तो आ गया था पर अंग्रेजी व्यवस्थाओं के लिए उसका मोह कदाचित् बना ही रहा था। इसी वर्ग के दबाव में 1921 में गांधीजी को कहना पड़ा था कि चाहे उनका अंतिम येय हिंद स्वराज्य में वर्णित स्वराज्य की प्राप्ति का है पर उनका तात्कालिक उद्देश्य तो संसदीय स्वराज्य को प्राप्त करना है।

इस वर्ग को आधार बनाकर अंग्रेज अपनी व्यवस्थाओं को व्यापक बनाते चले गये। 1919 के अधिनियम के मायम से जब अंग्रेजों ने सत्ता में भागीदारी का कुछ अवसर इस पढ़े-लिखे वर्ग के लिए खोला तो अनेक कांग्रेसी नेता कांग्रेस छोड़ कर चले गये। गांधीजी के आने से पहले 1909 के संवैधानिक सुधारों से विविध स्तरों पर सत्ता चलाने का जो छोटा-सा अवसर अंग्रेजों ने दिया था उसमें भी कांग्रेस के अनेक बड़े नेता आ गये थे। फिर 1935 के अधिनियम से जब अंग्रेजों ने अपेक्षाकृत शक्तिसंपन्न संसदीय प्रणाली में भाग लेने का कुछ अवसर भारतीयों को देने का प्रलोभन दिया तब तो लगता है कि कांग्रेस के प्रायः सब नेता उस दिशा में चल निकले थे। इस प्रकार 1935 का अधिनियम स्वतंत्र भारत का भावी संविधान ही बन गया। 1932 की गोलमेज कांफ्रेंस से लेकर 1937 के परिषदों के चुनावों तक के कालखण्ड में कैसे गांधीजी पहल खोते गये और कैसे वे कांग्रेस में ही अप्रासंगिक होते गये, इसका विस्तृत वर्णन यहाँ आया है।

स्वराज्य की अवाधरणा के विपरीत अपनी ही प्रकार की संवैधानिक व्यवस्थाओं को भारत में आरोपित कर भारत से जाने के अंग्रेजों के बहुत पुराने संकल्प को पूरा करने में अंग्रेजी पढ़ा-लिखा वर्ग ही अंग्रेजों का प्रमुख उपकरण बना। मोतीलाल नेहरु इसी वर्ग का प्रतिनिधित्व करते थे। 1935 के बाद जवाहरलाल नेहरु भी खुल कर महात्मा गांधी की हिंद स्वराज्य की परिकल्पना से अपने-आप को दूर करने लगे थे। फिर 1942 में तो इस वर्ग के सब प्रमुख नेता गांधीजी के विरुद्ध खड़े हो गए थे। भारत छोड़ो आंदोलन गांधीजी ने इन वर्गों के मुखर विरोध की अवहेलना करते हुए ही प्रारंभ किया। इन वर्गों के तीव्र प्रतिरोध के होते हुए भी गांधीजी सर्वदा इनके नेताओं से निकट संबंध बनाये रहे। सबको साथ लेकर चलना उनकी अनिवार्यता ही थी। वे भारत को जोड़ना चाहते थे, तोड़ना नहीं। विभिन्न संदर्भों में मोतीलाल एवं जवाहरलाल नेहरु के प्रति गांधीजी के विशेष औदार्य का उल्लेख इस शृंखला में आया है। उसका रहस्य कदाचित् अंग्रेजों द्वारा पोषित अंग्रेजी पढ़े-लिखे वर्ग को कुछ सीमा तक संतुष्ट रखने की यह अनिवार्यता ही थी।

अंग्रेजी व्यवस्थाओं को आरोपित करने के अपने उद्देश्य की प्राप्ति में अंग्रेजी पढ़े-लिखे एवं वकालत, डाक्टरी आदि से जुड़े इस वर्ग के अतिरिक्त दो अन्य वर्गों का उपयोग अंग्रेजों ने करना चाहा। इनमें प्रमुख वर्ग मुसलमानों का था। लगता है कि अंग्रेजों ने बहुत पहले से यह समझ लिया था कि अपनी वैश्विक इस्लामी विचाराधरा के कारण मुस्लिम भारतीय राष्ट्रवाद के पक्ष में नहीं हो सकते। प्रारंभ में कुछ समय के लिये खिलाफत आंदोलन के मायम से गांधीजी मुसलमानों को राष्ट्रीय आंदोलन की मुख्य धारा में लाने में सफल होते दिखायी देते हैं। पर वह गठबंधन खिलाफत के साथ ही समाप्त हो गया। उसके पश्चात् अंग्रेज निरंतर मुसलमानों का उपयोग गांधीजी का अवरोध करने के लिये करते रहे। मुसलमानों को किस प्रकार भारतीय राष्ट्रीयता की मुख्य धारा से जोड़ा जाये, यह प्रश्न गांधीजी के समक्ष सर्वदा बना रहा। इस यक्षप्रश्न का पर्याप्त विस्तृत विवेचन इन व्याख्यानों में हुआ है।

मुसलमानों के अतिरिक्त दलित वर्ग का उपयोग गांधीजी के विरुद्ध करने का सुनियोजित प्रयास भी अंग्रेजों ने किया। पर दलितों में गांधीजी का प्रभाव इतना गहरा था कि अंग्रेजों के उस प्रयास को वे बहुत सीमा तक कुण्ठित कर पाये। फिर भी डॉ. अंबेडकर तो गांधीजी की स्वराज्य की अवाधरणा के विरुद्ध ही रहे। गांधीजी जिन ग्रामों एवं पंचायतों को स्वराज्य का आधार मानते थे उनके विषय में अत्यंत कठोर शब्दों का उपयोग अंबेडकर ने संविधान सभा में किया। इस प्रकरण और संविधान सभा के क्रियाकलाप का वर्णन भी इन व्याख्यानों में हुआ है। इस वर्णन से यह स्पष्ट उभर कर आता है कि संविधान का प्रारूप तो 1935 के अधिनियम के आधार पर अंग्रेज काल के अफसरों ने ही बना दिया था, संविधान सभा में इस प्रारूप में कोई बड़ा परिवर्तन करने की संभावना नहीं थी। बाद में डॉ. अंबेडकर स्वयं भी संविधान के निर्माण में अपनी भूमिका का उपहास करते हैं, इस प्रकरण का उल्लेख भी यहाँ आया है।

इस प्रकार भारतीय संविधान और उसमें वर्णित समस्त व्यवस्थाओं के क्रमिक विकास का संपूर्ण इतिहास इस व्याख्यान शृंखला में आ गया है। इससे कुछ सीमा तक यह समझ आता है कि क्यों दीर्घ काल तक स्वदेशी और स्वराज्य के आदर्शों के लिए संघर्षरत रहने के पश्चात् भी भारत को अंग्रेजी व्यवस्थाओं को स्वीकार करना पड़ा, कैसे अंग्रेज अपने लंबे शासनकाल में इन व्यवस्थाओं के पक्ष में भारतीयों के ही अनेक वर्गों को खड़ा कर पाये। इस परिप्रेक्ष्य में यह भी समझ आता है कि भारतीय संविधान को स्वदेशी स्वरूप में ढालने की समस्या कितनी जटिल है और इसके लिए किस प्रकार के प्रयास करने होंगे। पर यह तो अलग व्याख्यान शृंखला का विषय है।

यह व्याख्यान शृंखला दिल्ली नागरिक परिषद् और दीवानचंद इंस्टीटूट ऑफ नेशनल अफेयर्स के सहयोग से आयोजित हो पायी। उन दोनों संस्थाओं एवं उनके पदाधिकारियों के हम आभारी हैं। श्रोताओं के उत्साह एवं प्रोत्साहन के कारण ही यह शृंखला इतने लंबे समय तक चल पायी, शृंखला में भाग लेने वाले सब श्रोताओं एवं प्रतिभागियों का अत्यंत आभार। केंद्र के अन्य अनेक कार्यों के समान ही इन व्याख्यानों के संपादन में भी श्री बनवारी एवं श्री श्रीनिवास का बड़ा सहयोग एवं प्रोत्साहन रहा है। मेरे अग्रज साथी डॉ. सूर्यकांत बाली और डॉ. मीनाक्षी जौन एवं डॉ. चंद्रपाल ने विभिन्न प्रकार से पहले शृंखला को चलाने और फिर इन व्याख्यानों के संकलन-संपादन के कार्य में सहयोग किया है। उन सब का आभार।

 

कृष्ण जनमाष्टमी, कलि 5116                                                              जितेंद्र बजाज
अगस्त 17, 2014
समाजनीति समीक्षण केंद्र, दिल्ली

 

भारतीय संविधान की औपनिवेशिक पृष्ठभूमि: देवेंद्र स्वरूप
Dr. J. K. Bajaj (edited)
Centre for Policy Studies, New Delhi
Hindi 2014 ISBN 81-86041-42-7
Price Rs. 300/-